Saturday, 2 May 2015

Maharana Pratap Untold Story (वीर गाथा )

                               केसरिया पगड़ी झुके नहीं 

                                             

 
दिल्ली का वह लाल किला । विशाल समारोह का आयोजन था । देश भर के बड़े बड़े राज महाराजों अमीर उमरावों को बादशाह अकबर ने विशेष रूप से आमंत्रित किया था । दीवाने एक आम में वह कोई खास घोषणा करनेवाला था । दरबार खचाखच भरा था । सभी श्रेणियों के सरदार व मनसबदार अपने अपने नियत स्थान पर बैठे थे ।सरदारों में खुस पुस बात चल रही थी । काना फूसी का माहौल गर्म था । सभी अपनी अपनी अटकलें लगा रहे थे । पता नहीं क्या माजरा है ? भाई आज न जाने क्या होने वाला है? दरबार ए आम में ऐसी तैयारी तो कभी नहीं हुई स्वयं बादशाह के गद्दी नशीनी पर भी इतनी रौनक नहीं थी कि जितनी आज है । बा मुलाहिजा होशियार जिल्ले सुभानी शहंशाह हिन्दोस्तान जहांपनाह । अबुल फतेह मुहम्मद अकबर दीवाने आम में तशरीफ ला रहे हैं होशियार होशियार । चाबदार की आवाज सुनाई दी । सभी अदब से खड़े हो गए । अकबर के दरबार में पधारने पर सबने जमीन से झुककर तीन बार बांदशाह को सलाम किया । अकबर हौले हौले तख्ते ताऊस पर जा बैठा । बड़ा प्रसन्न था । उसके चेहरे पर ऐसी रौनक कभी नहीं दीखी थी जैसी कि उस समय थी । अपने वजीरे आजम को आदेश दिया । मेवाड़ के महाराणा की वह चिट्ठी लाओ । वर्षों की तमन्ना आज मेरी पूरी हुई हैं अब सारा हिन्दोस्तान मेरी मुट्ठी में आ गया । एक ही रोड़ा था जो खुद ब खुद रास्ते से हट गया । मैं खासतौर से सभी राजपूत सरदारों को इस से सभा राजपूत सरदारो को इत्तला दो चाहता हूं कि मेवाड़ के मगरूर राणा ने मेरी ताबेदारी करना कुबूल कर लिया है । मैं सबको मेहरबानी और इज्जत बख्शवाता हूं । उसने महाराणा प्रताप के पत्र को स्वयंपढ़कर सुनाया । उसे सुनकर सारा दरबार सन्न रह गया । क्या हिन्दू क्या मुसलमान । सचमुच यह एक अनहोनी थी । राजपूत सरदारों के मुख पर तो जैसे कालिख ही पोत दी हो । उसनके मुखड़ों को देखकर कोई भी सहज अनुमान लगा सकता था कि वे प्रसन्न नहीं हुए थपे । मुर्दगी सी वहां छा गयी थी । मेरे बहादुरों देखो ? मैने उसकी सारी ऐंठ निकाल दी । वह ठहाका मारकर हंस पड़ा था ।
 
राजपूतों के स्वाभिमान व सम्मान को चोट पहुंची थी । उसकी व्यंग्योक्ति हिन्दू सरदारों को अच्छी न लगी । पृथ्वी राज से रह न गया । वे उठे और दिल्ली सुल्तान के सामने जाकर पंरपरा के अनुसार प्रणाम किया । वे बोले हुजूर । मुआफी चाहता हूं । राणा प्रतापप को में अच्छी प्रकार से जानता हूं वे मेरे संबंधी है । वे ऐसा पत्र कभी नहीं लिख सकते । मैं उनके हस्ताक्षार को भी पहचानता हूं ।यह तो बिल्कुल जाली हैं । किसी ने भुलावे डालने के लिए ऐसा लिख है । रापजूत सरदार की बात सुनते ही अकबर का मुंह धुआं साहो गया । पृथ्वी राज के शब्दों ने राजपूतों के जख्मों पर मरहम का काम किया । उसके मन में संदेह हुआ कि सचमुच ऐसा ही तो नहीं हैं वे राजपूतों को नाराज ही नहीं करना चाहता था ।वह उस समय बात को टालना भी चाहता था अतः पृथ्वीराज को पत्र की सत्यता जांचने और प्रभावित करवाने का आदेश दिया । उसकी आशाऒं पर तुषारापात हो चुका था । अतः उसने तुरंत दरबार भंग कर दिया और अपने गम को दूर करनके को जनानाखाने में घुस गया । कहा जाता है कि एक पत्र पृथ्वीराज ने राणा को लिखा ही था किन्तु वे उनसे प्रत्यक्ष मिले भी थे ।उन्होंने अकबर के सामने आत्मसमर्पण नहीं करने के लिए उनको प्रोत्साहित किया था । उनके एक एक शब्द ने राणा के मन पर अपना गहरा असर छोड़ा था ।
पृथ्वी राज ने महाराणा प्रताप को इस आशय का पत्र लिखा थ । सम्भवतः यह पत्र पत्नी किरन बाला की प्रेरणा से ही उसने महाराणा को लिखा था पूज्य महाराणा जी । अकबर के दरबार में आपके पत्र को दखकर हृदय को बड़ा धक्का लगा मैं हतप्रभ हो गया । केवल मुझे ही तो नहीं तो कतिपय इने गिने राजपूत सरदारों को छोड़कर साधारणतः सभी को सदमा लगा था ।आप समझ गए होंगे में कौन हूं ? मैं हूं आपकी बहिन जसमांदे का पति पृथ्वी राज । पत्र द्वारा सभ रापजूतों के हृदय की थी भावना उनकी अन्तरात्मा की पुकार आपके पास पहुचा रहा हूं सूचे देश में आप सिरमौर हैं । सम्पूर्ण राजपूत बिरादरी को आप पर गर्व हैं हम सब जानते है कि आप पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा है । आपके दुखों को देखकर वयंसाक्षात दुख का भी हृदय दरक उठे । आपसे इस विपरीत अवस्था में स्वतंत्रता की आग को जो जला रखा है इससे सभी के अन्तःकरणाकेमें आपका सम्मान और भी बढ़ गया है । वहां बैठे आप इसकी कल्पना नहीं कर सकते । इस घटना से आप स्वयं उसका अंदाजा कर सकते हैं अभी कुछ समय पहले कही ही तो बात है अकबर के दीवान ए आम में एक कवि सम्मेलन चल रहा था अनेको कवि थे एक चारण की बारी आई । वह अपनी कविता कहने को उठा । सम्राट के सामने आया । अपने सिर से पगड़ी उतार कर बांए हाथ में ले लिया । दाहिने हाथ से धरती से झुकर तीन बार सलाम किया । उसके हाथ में केसरिया रंग की पगड़ी थी । सभी आष्यर्चयकित थं उसेने ऐसा क्यों किया ? एक प्रकार से तो यह बादशाह का अपमान था । दरबार में हलचल मच गयी । अकबर ने उसका कारण पूछा । चारण का उत्तर था जरा ध्यान दीजिए । जहांपहनाह यह मेरी पगड़ी नहीं हैं । मैं आपका चाकर हूं किन्तु यह साफा मेंरा नहीं है यह है महाराणा प्रताप का । मुझसे प्रसन्न होकर स्वयं इसे मेरेसिर पर रखा था ।जिस नरश्रेंष्ठ के मस्तक को दिल्ली की सल्तनत आज तक नहीं झुका सकी मैं तो अति छुद्र प्राणी हूं मैं कोन होता हूं उसकी पगड़ी का झुकनेवाला । इसी विंश्वास के साथ उसने कविता पढ़ी थी वह स्वाभिमानी चारण कौन था ? कहां का था आप अवश्य जानते होगें । मैं नहीं जान सका । उस क्रूर बादशाह ने उसे जानने का अवसर ही नहीं दिया । उसने तत्क्षण क्रुद्ध होकर उसे बाहर निकाल दिया थ ।मैने उसे बहुत खोजा । इसके पष्चात वह हमे नही मिला । कदाचित शायद उसे बादशाह ने मरवा डाला था । राणा की केसरिया पगड़ी झुके नहीं । उसके कविता की वह पंक्ति अभी भी मेर कानो गूंज रही है । मेरे दिल और दिमाग को झकझोर डालती है महाराणा जी क्या उस स्वाभिमानी चारण का बलिदान व्यर्थ ही जाएगा । जो पगड़ी नहीं झुकी क्या उस पगड़ी वाले का सिर अकबर के कदमों पर झुक जाएगा ? क्या अप अपनी उस भीष्म प्रतिज्ञा को भी भूल गए जो चित्तोड़के छिनने पर आपने की थ जब तकि चित्तोड़ को पुनः स्वंतंत्र नही करा लेते आप पलंग पर नहीं लेटैंगे ।धरतीपर पर घास फूस की शय्‌या ही आपका बिछौना होगा । सोने चांदी के बर्तनों के स्थान पर मिट्टी के पात्रों का ही प्रयोग करेंगे ।पत्तल में ही भोजन करेंगे । आपके सम्मान में प्रतीक स्वरूप जो आपकी सवारी के आगे चलता और बजाता था वह अब पीछे बजेगा । इसलिए तो कि अहर्निश आपको अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण रहे । मैं आपसे पूछता हूं कि क्या चित्तोड़ की पराधीनता की बेड़िया कट गयी । आपका ध्येय साकार हो गया ? आपने तो आजीवन इस व्रत को निभाने की प्रतिज्ञा की थी ?
आप मेवाड़ की स्वतंत्रता का दीप जलाए रखें । यह मेरी ही नहीं सबकी आंकाक्षा है । किन्तु मैं इसके लिए आपको बाध्य नहीं करता । मैं तो स्वयं ही हूं गुलाम । अतः आपको उपदेश देने का अधिकार नहीं रखता । इस प्रश्न का उत्तर अब आपके विवेक पर ही छोड़ता हूं । अस्तु इतिहास साक्षी है कि पृथ्वी राज के पत्र ने महाराणा को अकबर के सामने आत्मसमर्पण करने से विरत किया था ।
      

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