Friday 10 April 2015

Rajput Proud Rajputana History Rajputana Story

कबतक इतिहास पर गर्व करते रहोगे ?
इतिहास का संधि विच्छेद है इति + हास अर्थात यह हो चूका है ! यदि किसी विद्वेष की भावना को दूर रखा जाय तो जो निश्चय ही हो चूका है वही इतिहास में लिखा जाना चाहिए ! किन्तु जैसा कि हम पहले ही कह चुके है कि भारतीय इतिहास में तोड़मरोड़ कि गई है , उसके साथ छेड़छाड़ किया गया है अत: कुछ स्वार्थी तत्वों ने अपने स्वार्थ के लिए , उसमे कुछ शब्द जोड़े एवं बहुतसे शब्द घटा दिए है ! बावजूद इस सबके भारतीय इतिहास में क्षत्रियो की गौरव गथाओ कि कोई कमी नहीं है ! पूर्व प्रधान मंत्री श्री चन्द्र शेखर ने तो कहा है कि " यदि भारतीय इतिहास मेंसे राजपूत इतिहास को निकल दे तो शून्य शेष रह जायेगा " ! निसंदेह तमाम जोड़ तोड़ के बावजूद राजपूतो को इतिहास में एक प्रमुख स्थान है ! इसके लिए राजपूत , इतिहासकारों का अहसानमंद नहीं हो सकता क्योकि राजपूतो ने अपनी वीरता, त्याग एवं बलिदान का जो कौशल दिखाया; वह संसार कि किसी जाति ने प्रदर्षित नहीं किया ! कर्नल टोड ने " हिस्टरी ऑफ़ राजपुताना " में लिखा है कि " विश्वास ही नहीं होता है कि राजपूत जैसी जाति मूलतः भारतीय ही हो "! उसने आगे लिखा है कि राजपूताने की चप्पा-चप्पा भूमि थर्मपोली है ! संसार में वीर जातियों की कोई कमी नहीं है ! बहुत सी जातियों ने वीरता का परिचय दिया है ! संसार में युद्ध प्रिय या युद्धकला में पारंगत जातियों की भी कोई कमी नहीं है ! और शासन करने में पारंगत जातियों की भी कोई कमी नहीं है ! और शायद दानी एवं उदार जातियों की भी कोई कमी नहीं रही है ! लेकिन इन सरे गुणों का समावेश किसी एक जातिमे हो एसा उदहारण किसी जाति में आज तक देखने को नहीं मिला है ! राजपूत जाति प्रसिद्ध इसलिए नहीं है की उसने लम्बे समय तक शासन किया है बल्कि वह अपने गुणों की वजह से श्रद्धयोग्य रही है ! राजपूतो में त्याग, बलिदान, वीरता, एवं न्यायप्रियता तथा उदारता का अद्भुत संगम का समावेश है ! सर काटने बाद घंटो लड़ाई जरी रखने का उदहारण केवल और केवल राजपूत जाति में ही देखने को मिला है.परिणय एवं प्रण मेसे हमने हामेशाही प्रण को ही स्वीकार किया है .विवाह के गठजोड़ो को हमने काटकर युद्धों में प्रवेश किया है ! हार या मौत निश्चय जानकर भी हमने युद्ध किया है ! हमने कभी भी मौत का भय नहीं माना ! संसार की अधिकांश वीर जातियों में केवल उनके पुरुष वर्ग की वीर गाथाये है ! किन्तु अकेली राजपूत जाति ऐसी है जिसमे क्षत्रानियो को क्षत्रियो से ज्यादा जाति के गौरव का श्रेय जाता है ! सतीत्व की जो अनोखी मिसाल क्षत्रानियो ने प्रस्तुत कि; वह वाकई आश्चर्य जनक है ! केवल मर जाने के बाद पति के साथ चिता में जलना ही सतीत्व नहीं है ....बल्कि पति के अधूरे कार्य एवं लक्ष्य में अपने को समर्पित कर देना उससे भी बड़ा सतीत्व है ! और क्षत्रानियो ने इस कर्तव्य को बखूबी निभाया है ! यह कौन मुर्ख है जो इसे उस ज़माने की परम्परा कह रहा है ? विधवा का पुन: विवाह के बारे में, मै यहाँ ज्यादा कुछ नहीं लिखना चाहता इसके असली कारण है की विधवा पुन: विवाह की बात वे ही लोग कर सकते है जो कि विवाह को एक सौदा मानते है ! इसका अलग अध्याय में जिक्र किया जायेगा ! जरा ध्यान करो एवं मनन करो की हमने ऐसी कौनसी व्वस्था की है कि विपरीत समय निकल जायेगा और अच्छा समय आने पर फिर से क्षात्र धर्मं का पुनरुद्धार होगा ! हम हर रोज कोई न कोई क्षत्रिय कर्म छोड़ते जारहे है ! तथा एक दिन ऐसा भी आयेगा कि हम में कोई क्षत्रिय गुण शेष है या नहीं, लोग इस पर भी सट्टा लगायेंगे ! हमारे पास क्षात्र धर्मं को पुनर्स्थापित करने की कोई योजना है ? योजना तो दूर की बात है हम तो उस बारे में सोचते भी नहीं, जैसे समय एवं व्वस्था ने हमे बिलकुल हरा दिया है, पंगु बना दिया है ! अपने खोये गौरव को प्राप्त करने के लिए हमको ही कुछ करना होगा ! इस कार्य हमारी सहायता करने नहीं आयेगा ! हाँ यदि हम अपनी कमर कश कर मैदान में उतरोगे, तो सहायता के लिए स्वयं श्री कृष्ण सारथी बनकर फिर से गीता का रसपान कराने आयेंगे पर शायद हम उन्हें पहचान न सके ! केवल अपना ममेरा, चचेरा, फुफेरा या जाति भाई ही मान सके, पर यदि अर्जुन की तरह हमने उसे अपना गुरु एवं शखा भी मान लिया तो इस महाभारत को अवश्य जीत लेंगे !
आपको इतनी सारी कड़वी सच्चाई भी बताई गयी है ! आप स्वयं जानते है की हमने आज यदि आलस्य नही छोड़ा तो हम अपना क्षत्रित्व, अपना पुरुषार्थ, अपना धर्मं, सतीत्व, अपनी पहिचान सब कुछ गवां देंगे ! आज हमारे पास जो बचा है उससे संतोष मत करो, अपने क्षत्रित्व को बढाओ ! हमे अपना खोया गौरव प्राप्त करना है ! मरे हुए शारीर को कोई भी अपने घर में नहीं रखता है , उसे श्मशान में अंतिम क्रिया के लिए लेजाया जाता है ! आप अपने को मरा हुआ मत दिखाओ, नहीं तो यह संसार क्षण मात्र में हमे फूंक आयेंगे और तब क्षत्रिय केवल " भाप का इंजन " बनकर रह जायेगा, जो केवल इतिहास की वस्तु मात्र है ! इतिहास पर गर्व करो पर अपने वर्तमान को भी अपने पूर्वजों के इतिहास के तुल्य तो बनाओ, जिससे लोग कमसे कम इस बात पर विश्वास तो करें कि हम भगवान श्री राम एवं श्री कृष्ण के वंशज है !

Tuesday 7 April 2015

Rajputana Quotes Rajputana Lines Rajputana Status

राजपुतो के लिये कुछ पंकतिया-

 1) राजपूत का बेटा हूँ "चंद्रमा की मिट्टी से तिलक करने का जज्बा रखता हूँ, गीदड़ रखने का शौक नहीं शेर पालने का रुतबा रखता हूँ

2)  तीन चीज राजपूत को बहुत 
    प्यारी होती है :-
 - युद्ध
 - ठकुराई
 - रजपूती शान

3) तीन चीजें राजपूत
     को मरवाती है :-
  - हद से ज्यादा गुस्सा
  - हथियारों का शोक
  - अनधा प्यार

4) तीन चीजें राजपूत के पास सबसे
    ज्यादा होती है :-
  - खुन की गरमी
  - हद से ज्यादा दिलेरी
  - लोगों मे उनकी दहशत

5) तीन चीजों के पीछे राजपूत बहुत
   लङता है :-
  - पुराना प्यार
  - कालेज की यारी
  - अपना बदला...

6) वक्त आने दो बन्दूक भी उठाएंगे ट्रिगर भी दबायेंगे और गोली भी चलाएगें.और उस कमीनी चीज पर राज भी करेंगे। जिसे लोग कहते है |

7)  ताज कि फिकर तो बादशाहों को होती हे , हम तो राजपूत ‬ हे ,और  राजपूत  अपनी सियासत खुद लेकर चलते हे ।

8) लोग चले थे राजनीती सिखाने ... हमने भी कह दिया पहेले "निति" पे चलो "राज" करना हम राजपुत सिखा देंगे. |

9) बडा अजीब सा अंदाज है " राजपूतों " का इनके तेवर तो तेवर, शौक भी जानलेवा है.|

10) हमारी सोच और लोगो कि_सोच मे..बस ईतना हि फर्क हे, के वो सरकारी आदमी बनना चाहते हे,और हम सरकार 

जय राजपुताना


Monday 6 April 2015

कर्ण (Karna An Untold Epic Story )




कर्ण :-
माता कुन्ती पांडु की पत्नी और तीन पाण्डवो की माँ थी। युधिष्ठर, भीम, और अर्जुन कुंती के पुत्र थे तो नकुल और सहदेव माद्री के। किन्तु राजा पंडु और रानी माद्री के इहलोक से चल बसने के पश्चात पांचो पाण्डव माता कुन्ती को ही माता मानने लगे थे और इसके चलते वे सब कुन्तीपुत्र ही कहलाये।

लेकिन कुंती का और एक बेटा था। बचपन में कुमारिका कुन्ती की अनन्य साधारण साधना को देखते हुए एक ॠषि ने उसे विशेष शक्ति प्रदान की थी। उस ॠषि ने कुंती को ऐसा मंत्र दिया था जिसके उच्चारण से कोई भी देवता को कुंती प्रसन्न कर सकती थी। कुमारिका अवस्था में शादी के पहले एक बार कुंती को मंत्र के शक्ति का प्रभाव जानने की ईच्छा हुई। सो उसने एक मंत्र उच्चारण कर सूर्यदेव का आवाहन किया। तेजस्वी भास्कर पुरूष रूप धारण कर कुंती के सानिध्य में आए और समयानुसार कुंती को एक अतितेजस्वी बालक हुआ। यही कर्ण के नाम से प्रसिध्द हुआ। जन्म से ही इस बालक के शरीर पर तेजोमय कवच और कान में कुण्डल थे। सूर्यदेव की इस भेंट से कर्ण हर मुसीबत में या हर हालात में अजेय था।

कुमारिका अवस्था में शादी के पूर्व माँ बनना भारतीय संस्कृती में बहुत अपमानजन्य और हीन माना जाता है। सो कुंती ने नवजात बालक कर्ण को एक लकडी के बक्से में रखकर नदिया के प्रवाह में छोड दिया। संयोगवश एक सूत युगल को यह बक्सा मिला और उसमें नवजात बालक को पाकर उन्हे बेहद खुशी हुई। उन्होने कर्ण को अपना बेटा मानकर उसका अच्छा लालनपालन किया। इस कारण कर्ण सूतपुत्र कहलाया। माता का नाम राधा होने से कर्ण राधेय के नाम से भी जाना जाता है।

माँ-बाप के प्यार में पलते-पलते कर्ण ने किशोर अवस्था में प्रवेश किया। अब उसे ज्ञानार्जन के लिये किसी गुरु के पास जाना अनिवार्य था। सो यह बुध्दिमान, स्वाभिमानी, पराक्रमी कर्ण परशुराम के आश्रम पहुंच गया।

परशुराम एक महान ॠषि और गुरू थे। किंतु सर्वविद्यापारंगत परशुराम की एक शर्त होती थी। वे केवल ब्राम्हण युवक को ही शिष्य के रूप में स्विकारते। सो कर्ण ने बखूबी अपने आप को ब्राम्हण के भेष में बदल लिया और परशुराम का शिष्य बन गया।

एक दिन गुरूदेव शिष्य कर्ण की गोद में लेटे लेटे नींद की झपकी ले रहे थे। तब एक बडा सा भृंग कर्ण की जांघ पर बैठ उसे काटने लगा। क्षत्रिय वीर कर्ण ने उस दर्द की परवाह न करते हुए जरा भी हलचल नहीं की। वह गुरूदेव की नींद में खलल नहीं डालना चाहता था। भृंग कीडा कर्ण की जांघ में अधिका धिक छेद करता चला गया और वहाँ से खून बहने लगा। इस खून की गरम धारा ने जब परशुराम के बदन से स्पर्श किया तो वे जाग गये और उनको इस स्थिति का भान हुआ। वे अचंभे में पड ग़ये कि कैसे एक ब्राम्हण बालक इस असाधारण पीडा को सहन कर सकता है। उन्हे शक हुआ कि हो न हो यह बालक ब्राम्हण जाति नहीं हो सकता।

सो उन्होने कर्ण से सत्यवचन कहने को कहा ''क्या तुम सचमुच ब्राम्हण हो।''

अब कर्ण के लिये गुरूदेव से झूठ बोलना सम्भव न था तथा उसने अपनी सही पहचान दी कि वह मात्र एक सूतपुत्र है। इसपर क्रोधित होकर परशुराम ने कर्ण को श्राप दिया कि - हे ! शूरवीर कर्ण मैं तेरी तपस्या, गुरूप्रेम, और बहादुरी की प्रशंसा तो करता हूँ लेकिन तेरे असत्य वचन के चलते श्राप भी देता हूँ कि - युध्दभूमी में तुझपर संकट आएगा और तेरी मौत का वही कारण होगा।

सर्वविद्याधारक और विशेषता धर्नुविद्या में पारंगत कर्ण गुरूदेव को प्रणाम करता कुछ मायूस होकर आश्रम से निकल पडा।



परशुराम के आश्रम से निकल कर कर्ण हस्तिनापुर पहुंचा। इधर पांडव और कौरव भी गुरू द्रोणाचार्य से शिक्षा संपन्न कर हस्तिनापुर में अपनी कलाकौशल का प्रदर्शन करने पहुंचे थे। उन दिनो हस्तिनापुर में कौरवों और पांडवों का युध्दाभ्यास चल रहा था। एक भव्य मेला ही लगा था जिसमें अनेक कौरव और पांडव अपनी अस्त्रशस्त्र कुशलता प्रदर्शित करते हुए जनसामान्य का मनोरंजन कर रहे थे। यह प्रतिस्पर्धा कलाप्रदर्शन के सार्थसाथ मन का निश्चय और विश्वास बढाने में मददगार होती थी।

आज अर्जुन अपनी धनुर्विद्या का प्रदर्शन कर रहा था। आकाश में बाण चलाकर बादलों को छेदना और वर्षा बरसाना अग्निअस्त्र की सहायता से अग्नि प्रज्वलित करना आदि अनेक प्रकार की अस्त्रसिध्दीसे अर्जुन की ख्याति दूर्रदूर तक फैल चुकी थी। आज इसका प्रत्यक्ष प्रमाण वह हस्तिनापुर के जनसमुदाय के समक्ष दे रहा था।

आचार्य द्रोण, कृपाचार्य, भीष्म, धृतराष्ट्र, माता गांधारी और कुंती आदि वरिष्ठजन भी मौजूद थे। उस अर्जुनमय प्रशंसा के वातावरण में केवल एक दुर्योधन ही नाराज दिखाई दे रहा था। उसका मन द्वेष और मत्सर से भर गया था और वह चाहता था कि कोई अर्जुन की सफलता को ललकारे और उसे ध्वंस कर दे।

इस माहौल में कर्ण का वहाँआगमन हुआ था। उसने देखा कि अर्जुन की विद्या साधारण है। वह खुद इससे अधिक अस्त्रशस्त्र और धनुर्विद्या जानता था। सो उससे रहा नहीं गया और उसने अर्जुन को ललकार कर कहा ''हे पांडवश्रेष्ठ अर्जुन तुम्हारी कला का मैं आदर करता हूँ, किंतु यदि तुम मुझसे स्पर्धा करने को तैयार हो तो मै अवश्य ही तुम्हे पराजित कर सकता हूँ। क्या तुम मुझसे धनुर्विद्या में प्रतिस्पर्धा करोगे।''

इस अचानक ललकार से कुछ देर अर्जुन स्तंभित हो गया किन्तु संभल कर तुरन्त ही बोला ''हे वीर मै नहीं जानता कि तुम कौन हो और कहाँ से आए हो। उचित होगा यदि तुम कृपाचार्य से और मेरे गुरूजनों से इस विषय में बात करें।''

कुंती ने कवचकुण्डलधारी युवा कर्ण को देखते ही पहचान लिया कि वह उसका अपना बेटा कर्ण ही है। लेकिन अब वह यह भेद किसीको कैसे बताती। इस असाधारण घटना से उसे मूर्च्छा आ गई। उसे तुरन्त ही राजमहल ले जाया गया।

कृपाचार्य और द्रोणाचार्य जान गये कि यह युवक कोई साधारण योध्दा नहीं है। उन्होने कर्ण का नाम पूछा और जानना चाहा कि वह किस राज्य का राजा या राजपुत्र है। उसके मातापिता का नाम क्या है।

अब कर्ण की बारी थी द्विविधा की अवस्था में पड ज़ाने की। यदि वह कहता कि वह एक सुतपुत्र है तो उसकी और उसके मातापिता की हंसी होती। सो उसने चुप्पी साधे रखना ही उचित समझा। इधर दुर्योधन भी कर्ण के व्यक्तित्व से प्रभावित हो गया था। परिस्थिति को समझते हुए वह जान गया कि यदि कोई अर्जुन से दो हाथ करने में समर्थ है तो वह केवल कर्ण ही है। इसलिये समयसूचकता और दूरदृष्टि से प्रेरित दुर्योधन उठ खडा हुआ और उसने सभा को संबोधित करते हुए घोषणा की ''हे गुरूजनो, हे पांडवो, हे हस्तिनापुरनिवासी भाईयों सुनो मैं अपने मित्र कर्ण को अंग राज्य दान में देता हूँ और उसका अंगराज के रूप में राज्याभिषेक करता हूँ। सो इसके पश्चात भविष्य में यह कोई भी न पूछे कि कर्ण कौन है। वह अम्गराज है और मेरा परममित्र है।

इस तरह दुर्योधन ने कर्ण को लज्जा और अपमान से उबार लिया। अब कर्ण के सामने दुर्योधन का मैत्री का हाथ स्वीकार करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। उसने निश्चय कर लिया कि चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाये फिर भी वह दुर्योधन का साथ नहीं छोडेगा। कर्ण बाद में जान जाता है कि वह कुंती का पुत्र और पांडवो का भाई है फिर भी यह दुर्योधन से मित्रत्व की शपथ आगे कर्ण को कैसे मुश्किल में डालती है।


द्यूत में हारकर पांडव 13 वर्ष का अरण्यवास भुगत चुके थे। वापस आकर उन्होने धृतराष्ट्र और दुर्योधन से आधा राज्य देने की मांग की। इस न्यायसंगत मांग को लोभी दुर्योधन ने ठुकरा दिया। दुर्योधन के इस अन्यायपूर्ण व्यवहार से हस्तिनापुर का भविष्य खतरे पड जायेगा इसका ज्ञान श्रीकृष्ण को था। सो एक दूत की हैसियत से वह हस्तिनापुर पहुंचे। उन्होने धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, द्रोण के समक्ष अपनी दलील पेश की और कहा आधा राज्य न सही कम से कम पांच भाईयों को पांच गाँव दे देने चाहिये। किन्तु दुर्योधन इसके लिये भी तैयार नहीं था। इस पर श्रीकृष्ण ने कौरवों को युध्द के खतरे से आगाह किया और सर्वनाश से बचने की सीख दी। लेकिन पांच गाँव तो क्या सुई की नोंक पर आये इतनी जमीन भी मैं पांडवों को नहीं दूंगा ऐसा कहकर दुर्योधन ने महाभारत के युध्द को जैसे आमंत्रण दे डाला।

दोनों ओर रणनीति दा/वपेंच और युध्द की तैयारी होने लगी। कर्णने अर्जुन को युध्द में परास्त करने की कसम खा रखी थी और दुर्योधन जानता था कि केवल कर्ण ही अर्जुन को मात देने में सक्षम था। केवल दुर्योधन ही नहीं बल्कि माता कुंती और श्रीकृष्ण भी जानते थे कि अर्जुन कर्ण के साथ युध्द में परास्त हो सकता है। इस विचार से कर्ण को पांडवों के खेमे में लाने के अनेक प्रयास हुए। यहां तक कि कर्ण को युध्द के पश्चात हस्तिनापुर की राजगद्दी देने का आश्वासन भी दिया गया।

माता कुन्ती की मन:स्थिति सबसे भिन्न और मुश्किल थी। अर्जुन से जहां वह प्यार करती थी, वहीं कर्ण भी तो उसका बेटा था। वह तो दोनों को सलामत देखना चाहती थी। इस भयानक विपदा का हल ढूंढने एक दिन कुंती चुपके से कर्ण को मिलने गई। उसने कर्ण को बताया कि वह उसका ही पुत्र है, और कौन सी स्थिति में मजबूर माँ को अपने बेटे का त्याग करना पडा था। इस अनपेक्षित कटुसत्य के उजागर होने से कर्ण भी धर्मसंकट में पड ग़या।

कर्ण के मनपटल पर अनेक दृश्य उभर कर सामने आए। हस्तिनापुर की स्पर्धा में कुंती का मूर्च्छित हो जाना, एक माता होने के बावजूद अपने बेटे को अपमानित होते देखना, एक बेटे को माँ की ममता से वंचित रखना आदि अनेक प्रसंग कर्ण के मनोचक्षु के सामने उभर आए। अब माता को दोष दें या प्यार करें इस द्विविधा में कर्ण फंस गया। माता तो माता है चाहे उसे मजबूरी की वजह से कुछ कठोर कदम क्यों न उठाने पडे हों।

दूसरी ओर दुर्योधन को दिये मित्रता के वचन का क्या होगा इस बात का कर्ण को भान हुआ। उस दुर्योधन ने कर्ण को ऐसे अपमान और लज्जा से बचाया था जिसकी कीमत केवल उसके लिये मर मिटने से ही चुकाई जा सकती थी। सो कौरवों का साथ छोड अब भाई पांडवो को जा मिलना कर्ण के लिये अशक्यप्राय: हो गया था। अतः माता को प्रणाम करता हुआ कर्ण बोला ''हे माते! मेरा प्रणाम स्वीकार करो। मैं दुर्योधन के पक्ष में रहकर ही युध्द करूंगा। इसके अलावा मेरे पास अन्य कोई चारा नहीं किन्तु एक बात अवश्य कहता हूँ कि, युध्द के पश्चात भी तू पांच पुत्रों की माँ बनी रहेगी।''

उन्ही दिनों एक और असाधारण घटना घटी। कुन्ती ने इन्द्रदेव का आव्हान कर अर्जुन को प्राप्त किया था। इसके चलते स्वर्गराज इन्द्र अर्जुन के पिता हुए। कर्ण की शक्ति को हरने की उन्होने एक तरकीब ढूंढ निकाली। ब्राम्हण का वेश धारण कर इंद्र कर्ण के सम्मुख कुछ दान पाने की अपेक्षा से मुखातिब हुए। यह सर्वमान्य था कि कर्ण के जैसा दानवीर इस दुनिया में न कभी था, न ही कभी होगा। उसकी दानवीरता के किस्से गांर्वगांव, दूर्रदूर तक बखान किये जाते थे। सो इंद्र को पूरा विश्वास था कि वह कर्ण से जो भी माँगेगा वह दानी पुरूष अवश्य ही उसे दे देगा। इंद्र ने ही ब्राम्हण का भेष धारण किया है, यह बात कर्ण जान गया था, किन्तु अपने उदात्त स्वभावानुसार उसने याचक का आदर किया और कहा ''हे द्विजवर इस प्रातःकाल के प्रहर में कोई कुछ भी मागे तो, मैं नियमानुसार याचक की ईच्छा पूर्ण करता हूँ। सो हे ब्राम्हण आप बेहिचक मुझे बतायें किस दान के इच्छुक हैं, मै आपकी ईच्छा पूर्ण करने का हरसम्भव प्रयास करूंगा।''

सूर्यदेव ने प्रदान किये कवचकुंडल ने कर्ण को अजेय बना दिया था यह सत्य इंद्रदेव जानते थे। आज कर्ण को निर्बल करने का अवसर इंद्र खोना नहीं चाहते थे और उसके चलते इंद्र ने कर्ण से उन कवचकुंडलो को ही दान में मांगा। अपना भविष्य साफ असुरक्षित देखकर भी जरा भी विचलित न होते कर्ण ने ब्राह्मण वेषधारी इंद्र की याचना पूरी की। कवचकुंडल के अभाव में अब कर्ण कमजोर हो गया और उसका युध्द में अर्जुन के हाथों हारना भी।

अंतिम समय

युध्द शुरू हुआ। भीष्म पितामह के धाराशायी हो जाने के पश्चात कर्ण ने कौरवों के सेना की बागडौर संभाली। उसने अर्जुन को मारने की कसम ले रखी थी। दोनों का आमना सामना हुआ। श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी थे। उन्होंने बखूबी अर्जुन को कर्ण के बाणों से बचाये रखा। तब एक अजीब घटना घटी। गुरू परशुराम के श्राप के परिणामस्वरूप कर्ण के रथ का एक पहिया धरती में धंस गया। रथ का हिलना चलना रुक गया और रथ एक ओर झुक गया।

कर्ण ने अर्जुन से विनती की कि हे अर्जुन, जरा रूको। मुझे इस पहिये को जमीन से निकाल लेने दो तत्पश्चात बाण चलाना। अर्जुन भी एक योध्दा था और जानता था कि निहत्थे पर वार करना युध्दनीति के खिलाफ है सो उसने अपना गाण्डीव नीचे रख दिया। तब श्रीकृष्ण ने उसे याद दिलाया कि कैसे कर्ण द्रौपदी के वस्त्रहरण के समय चुप्पी साधे रहा था। कर्ण ने हर समय अनाचारी कौरवो का ही साथ दिया है। उसके प्रति दयाभाव जताना एक भूल ही होगी। और तो और निहत्थे अभिमन्यु पर वार होते देख क्या कर्ण को नीतिमत्ता का भान नहीं हुआ। हे अर्जुन इस स्थिति में तेरा कर्ण पर बाण चलाना अधर्मकारी नहीं कहलायेगा। सो हे अर्जुन चला बाण।

इस तरह शूरवीर दानी निर्भय कुंतीपुत्र कर्ण का अन्त हुआ। कर्ण की यह मौत उपरी सतह पर एक छल दिखाई देती है। किन्तु यदि पूरे परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो एक बात साफ होती है कि अधर्म का साथ देनेवाले हर धार्मिक व्यक्ति का यही अंजाम होता है।

भीष्म पितामह आचार्य द्रोण कृपाचार्य आदि सब युध्द में मारे गये। वे सब धर्म का पालन करनेवाले थे, ज्येष्ठ थे लेकिन उन्होने धृतराष्ट्र और दुर्योधन के अन्यायी वर्तत की आलोचना नहीं की और किसी ने की भी तो वे चुप्पी थामे रहे। यह भी अथर्म में साथ देने से कम नहीं था। इस कारण उनका भी युध्द में मारा जाना स्वाभाविक और धर्मानुसार था। कर्ण भी इसका अपवाद नहीं था।

कर्ण के मृत्यु के पश्चात स्वयं श्रीकृष्ण ने उसके दानवीरता, शूरता विद्याकौशल की तारीफ की और अपने हाथों से उसका अंतिम संस्कार किया। इस तरहा महाभारत का एक अनूठा अनोखा और विवादास्पद कर्ण का पात्र हमें हर हमेशा याद रहेगा।



Thursday 2 April 2015

Some Facts About Rajput

'RAJPUT'' is the 1st most in india,
4th in Asia,
7th in World, most common surname.
15% of india and 70% of rajasthan's business is
handled by RAJPUT'S


RAJPUT is the 5th most richest community in the world.
RAJPUT surname have 432 different type of
sub surname.
35% NRI are RAJPUT.
RAJPUT is the official surname of 45 country.
In 2017 RAJPUT will be world's no:1 surname. 
RAJPUT the name is enough for one life..
So Proud To Be A  RAJPUT

Rajputs loves fighting but hates to b soldier,

Rajputs are kind, loving and gentle but hates to show it,

Rajputs are hot blooded and hot headed, may b poor sometime but proud with strange principles,

Rajputs will die but never steps back from his words,

Rajputs are sincere friend but deadly enemy,

हम गरम खून के उबाल हैं , प्यासी नदियों की चाल हैं , 
हम राजपूत है । 

जय माता की ॥ 

मुझे गर्व है की मै राजपूत हु